इतिहास की सर्वश्रेष्ठ वीरगाथा “महाराणा प्रताप सिंह”…


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(अंजली सिंह)
भारतवर्ष के इतिहास में प्राचीनकाल से ही राजपूतों का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। या ये कहें कि राजपूतों ने देश का इतिहास रचा है। तो ये कहना बिल्कुल गलत नहीं है। यहां राजपूतों ने देश, जाति, धर्म और स्वाधीनता की रक्षा के लिए निःसंकोच अपने प्राणों की आहुति दे दी। राजपूत हमेशा से देश के लिए संघर्ष करते आए हैं। देश के अनेक राजाओं ने समय-समय पर देश पर आई विपदा से लोगों को बचाने के लिए खुद को बलिदान कर दिया। आपको बता दें कि देश में एक ऐसा राज्य भी है, जहां की गौरवगाथा हमेशा लोगों की जुबान पर रहती है। उस राज्य की धरती पर अनेकों वीरों ने जन्म लिए। जिस राज्य का नाम है- राजस्थान, जिसे बलिदानों की भूमि कहा गया है।

राजस्थान के मेवाड़, चित्तौड़गढ़ और उदयपुर जैसे शहर देश का गौरव बढ़ाते हैं। इन्हीं शहरों में मेवाड़ एक ऐसा शहर है, जहां बप्पा रावल, खुमाण प्रथम महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा, उदयसिंह और वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जैसे प्रतापी राजाओं ने जन्म लिया है।

मेवाड़ के महान राजाओं में से एक महाराणा प्रताप अपने पराक्रम और शौर्य के लिए पूरी दुनिया में मिसाल के तौर पर जाने जाते हैं। उन्होंने मुगलों की गुलामी करने से अच्छा जंगलों में रहना और एक सम्राट होकर पकवानों की जगह घास-फूस की रोटियां खाना पसंद किया। लेकिन कभी किसी विदेशी हुकूमत के आगे हार नहीं मानी। उन्होंने देश, धर्म और स्वाधीनता के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया।

देश के महान प्रतापी राजा महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ईस्वी को राजस्थान के कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ था। हिंदी तिथि के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हुआ था। इसलिए इनकी जयंती शुक्ल पक्ष तृतीया को भी मनाई जाती है। उनके पिता महाराजा उदयसिंह और माता रानी जीवत कंवर थीं। वे राणा सांगा के पौत्र थे। बचपन में महाराणा प्रताप को सभी 'कीका' नाम से पुकारते थे।

राणाप्रताप का राज्याभिषेक-

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महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक 1 मार्च 1576 को गोगुंदा में हुआ था। अकबर से भयभीत होकर राणाप्रताप के पिता उदयसिंह ने मेवाड़ त्यागकर अरावली पर्वत पर डेरा डाला। और उदयपुर को अपनी राजधानी घोषित किया। हालांकि वो मेवाड़ हारे नहीं थे, मेवाड़ तब भी उदयसिंह के अधीन ही था। महाराजा उदयसिंह ने अपनी मृत्यु के समय अपने छोटे पुत्र को गद्दी सौंप दी थी जोकि नियमों के विरुद्ध था। वहीं उनकी मृत्यु के बाद राजपूत सरदारों ने मिलकर महाराणा प्रताप को मेवाड़ की गद्दी पर बिठाया।

लाख कोशिशों के बाद भी अकबर नहीं बना सका बंदी-

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महाराणा प्रताप के त्याग और संघर्ष की कहानी लोगों के दिलों को झकझोर देती है। महाराणा प्रताप के समय में दिल्ली में मुगल सम्राट अकबर का शासन था, जो भारत के सभी राजा-महाराजाओं को अपने अधीन कर देश में मुगल साम्राज्य की स्थापना और इस्लामिक परचम को पूरे देश में फहराना चाहता था। इसके लिए उसने नीति और अनीति दोनों का ही सहारा लिया। अकबर ने महाराणा प्रताप को हराने और उन्हें बंदी बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा लिया। लेकिन 30 वर्षों तक लगातार प्रयास के बावजूद अकबर महाराणा प्रताप को बंदी नहीं बना सका।

अकबर ने धोखे से किया मेवाड़ पर वार-


विक्रमी संवत 1633 में मुगल बादशाह अकबर शिकार के बहाने राणाप्रताप के क्षेत्र में पहुंच गया। और अचानक ही धावा बोल दिया। लेकिन राणाप्रताप ने बड़ी ही सूझबूझ के साथ अकबर का सामना किया। जिसके बाद अकबर ने वहां से निकलना ही मुनासिब समझा।


हल्दीघाटी का युद्ध-

तो ऐसे हल्‍दीघाटी का युद्ध जीते थे ...

जब अकबर हर संभव कोशिश करने के बाद भी राणाप्रताप को झुकाने में असफल रहा तो उसने आमेर के महाराजा भगवानदास के भतीजे कुंवर मानसिंह को विशाल सेना के साथ भेज दिया। जिससे कि मानसिंह डूंगरपुर और उदयपुर के शासकों को अकबर के सामने अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर सके। हालांकि मानसिंह की सेना के सामने डूंगरपुर राज्य अधिक प्रतिरोध नहीं कर सका। इसके बाद कुंवर मानसिंह ने उदयपुर पहुंचकर राणाप्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार करने की सलाह दी। लेकिन राणाप्रताप ने अधीनता स्वीकार करने की बजाय युद्ध में सामना करने की घोषणा कर दी। मानसिंह के उदयपुर से खाली हाथ आ जाने के बाद बादशाह अकबर ने अपनी विशाल मुगलिया सेना को मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। आखिरकार 30 मई 1576  को हल्दीघाटी के मैदान में दोनों पक्षों के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। युद्ध का संचालन अकबर के प्रसिद्ध सेना पति महावत खां, आसफ खां, महाराजा मानसिंह और शाहजादा सलीम कर रहे थे।

हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप ने मुगलों से लोहा मनवा लिया। इस वीर प्रताप ने अकेले ही अकबर के सैकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। इसी बीच झाला सरदारों के एक वीर सरदार हूबहू ने राणाप्रताप की तरह मुकुट और छत्र धारण कर लिया। मुगलों ने उसे ही राणाप्रताप समझकर उस पर टूट पड़े। इस तरह उन्होंने राणा को युद्ध क्षेत्र से निकल जाने में मदद की।


युद्धभूमि में भी धर्म को रखा आगे-

राणाप्रताप ने युद्धभूमि में भी अपने धर्म का परिचय दिया। एक बार युद्ध में शाही सेनापति मिर्जा खान के सैन्यबल ने जब राणाप्रताप के सामने समर्पण कर दिया था, तो उसके साथ में शाही महिलाएं भी थीं। राणाप्रताप ने अपने धर्म को सर्वोपरि मानते हुए उन सभी के सम्मान को सुरक्षित रखते हुए आदरपूर्वक मिर्जा खान के पास पहुंचा दिया था।

हर कदम पर रहा चेतक का साथ-

चेतक के पराक्रम से जुडी रोचक कहानी ...

राणाप्रताप का अगर कोई हर कदम पर साथ दे रहा था, तो वो था उनका घोड़ा चेतक। जिस समय राणाप्रताप हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान चेतक पर सवार होकर पहाड़ी की ओर जा रहे थे, उस समय दो मुगलिया सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। लेकिन युद्ध में घायल होने के बाद भी चेतक ने हार नहीं मानी और अपनी रफ्तार को और अधिक तेज कर लिया। वहीं रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था, चेतक ने फुर्ती से उसे लांघकर राणाप्रताप को तो मुगल सैनिकों से बचा लिया लेकिन अब उसकी गति धीमी हो गई थी। उसी समय राणाप्रताप को एक अश्वारोही आता दिखाई दिया। लेकिन जब उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो वह और कोई नहीं बल्कि उनका भाई शक्ति सिंह था। व्यक्तिगत विरोध ने दोनों भाइयों के बीच एक दरार डाल दी थी। जिसकी वजह से भाई शक्ति सिंह ने अकबर की शरण ले ली थी। शक्तिसिंह ने दोनों मुगल सैनिकों को मौत की नींद सुला दी और चेतक का पीछा करने लगे। दोनों भाई गले मिल ही रहे थे कि इसी बीच घायल चेतक जमीन पर गिर पड़ा और अपने प्राण त्याग दिए।

महाराणा प्रताप ने चित्तौड़ छोड़कर अपने समस्त दुर्गों पर अपना आधिपत्य कर लिया। और उदयपुर को अपनी राजधानी बनाकर फिर से मेवाड़ पर राज स्थापित कर लिया। राणाप्रताप को कई बार मुगलों की चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन हर बार मुगल उल्टे पांव अपनी हार मानकर वापस लौट गए।  इन्हीं सब के चलते युद्ध और शिकार के दौरान घायल हुए महाराणा प्रताप ने 29 जनवरी 1597 को चावंड में अपनी जिंदगी की अंतिम सांस ली।


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